गयासुद्दीन बलबन – दिल्ली सल्तनत का अंतिम प्रमुख शासक
बलबन के इतिहास की जानकारी हमें प्रमुखत: दो पुस्तकों में मिलती है- फुतुह उस सलातीन तथा किताब ए रेहला।
फुतुह उस सलातीन ग्रंथ की रचना इसामी नामक इतिहासकार ने किया था जो अलाउद्दीन बहमनशाह के दरबार में रहता था। अलाउद्दीन बहमन शाह बहमनी राज्य का संस्थापक था।इस ग्रंथ में 999 ईसवी से लेकर 1350 ईसवी तक के इतिहास का वर्णन किया गया है।
रेहला की रचना अफ्रीकी यात्री इब्नबतूता ने की थी जो मोरक्को देश से कुतुबुद्दीन ऐबक के शासनकाल में 1333 में दिल्ली पहुंचा था। इब्नबतूता ने रेहला की रचना अरबी भाषा में की थी। इस ग्रंथ में इब्नबतूता की यात्राओं का विस्तार से वर्णन किया गया है।इब्नबतूता के दिल्ली पहुंचने पर कुतुबुद्दीन ऐबक ने उसे दिल्ली के काजी के पद पर नियुक्त किया था और बाद में उसे अपना राजदूत बनाकर चीन भेजा था।
बलबन के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध दिल्ली सल्तनत के अंतिम प्रमुख शासक का पूरा नाम गयासुद्दीन बलबन था। बलबन के बचपन का नाम बहाउद्दीन था। बलबन के पिता इल्बारी तुर्क कबीले के सरदार थे।दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक माने जाने वाले इल्तुतमिश ने 1233 में बलबन को तुर्क चालीसा दल में शामिल किया था।
इल्तुतमिश ने बलबन को खासदार पद प्रदान किया था जिसका अर्थ होता है सुल्तान का व्यक्तिगत सेवक।
रजिया सुल्तान के शासनकाल में बलबन को अमीर ए आखूर (अश्व शाला का प्रधान) का पद प्रदान किया गया था।
अलाउद्दीन मसूद शाह ने बलबन को अमीर ए हाजिब(सुल्तान से मिलने वालों की जांच करने वाला मुख्य अधिकारी) तथा हांसी (आधुनिक हरियाणा में स्थित) का सूबेदार बनाया था।
बलबन को उलूग खां की उपाधि सुल्तान नसीरुद्दीन ने प्रदान की थी। सुल्तान नसीरुद्दीन महमूद के शासनकाल में ही बलबन ने नाइव ए ममलिकात(सुल्तान के बाद सर्वोच्च अधिकारी) का पद प्राप्त किया और 1265 में सुल्तान नसीरुद्दीन महमूद की मृत्यु के बाद बलबन को दिल्ली का शासक बनाया गया।
शासक बनने के तुरंत बाद बलबन ने सामान्य जनता के अंदर अपने प्रति भय एवं सम्मान की भावना जागृत करने का प्रयास किया। बलबन स्वयं को पृथ्वी पर अल्लाह का प्रतिनिधि मानता था। उसका मानना था कि पैगंबर के बाद पृथ्वी पर उसी का स्थान है।
बलबन ने राज्य की सभी समस्याओं का सामना करने के लिए कठोर लौह एवं रक्त की नीति का अनुसरण किया। राजस्थान और दिल्ली के आसपास मेवातियों का आतंक था जिसके विरुद्ध बलबन ने कठोर कार्यवाही की।
बलबन ने तुरकान ए चिहलगानी (40 तुर्क सरदारों का दल) को समाप्त कर। बलबन ने तुर्क सरदारों के प्रति भी कठोरता अपनाई। उसका मानना था कि कठोर शासन व्यवस्था से ही साम्राज्य सुचारू रूप से चलाया जा सकता है।
बलबन दिल्ली सल्तनत का प्रथम सुल्तान था जिसने गैर इस्लामी प्रथाओं का प्रचलन भी अपने दरबार में शुरू करवाया।
उसने सिजदा एवं पाबोस की प्रथा को प्रारंभ करवाया। बलबन ने ईरानी त्यौहार नौरोज मनाने की प्रथा भी प्रारंभ की। बलबन ने अपने सिक्कों पर खलीफा का नाम भी अंकित करवाया था।
बलबन ने मंगोलों के आक्रमण से अपने राज्य को सुरक्षित करने के लिए पश्चिमी सीमा पर किलो का निर्माण करवाया। बलबन के शासनकाल में ही 1286 में तैमूर के नेतृत्व में मंगोलों ने भारत पर आक्रमण किया और इसी आक्रमण का सामना करते हुए युद्ध में बलबन के बड़े पुत्र शहजादा मोहम्मद की मृत्यु हो गई। शहजादा मोहम्मद की मृत्यु के बाद बलबन ने उसे शहीद-ए-आजम की उपाधि प्रदान की।
शहजादा मोहम्मद के ही संरक्षण में अमीर खुसरो और अमीर हसन ने अपना साहित्यिक जीवन आरंभ किया था।
सेना को नगद वेतन देने का प्रारंभ सर्वप्रथम बलबन ने किया था।बलबन ने मृत सैनिकों की विधवाओं एवं उनके बच्चों के लिए आर्थिक सहायता की शुरुआत की तथा उसने ही सर्वप्रथम सेना का केंद्रीकरण किया था।
बलबन की मृत्यु 1287 से में हुई थी। कहीं पर आपको 1286 भी मिल सकता है। बलबन की मृत्यु के बाद राज्य के अधिकारियों ने 40 दिनों तक शोक मनाया था। बलबन का शासन काल 1266 से 1287 के मध्य माना जाता है।