नालंदा विश्वविद्यालय का इतिहास
नालंदा विश्वविद्यालय दुनिया का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय था। यह वर्तमान बिहार राज्य के नालंदा में स्थित था। नालंदा का अर्थ कमल का फूल होता है और हमें यह ज्ञात है कि कमल ज्ञान का प्रतीक है।यह एक बौद्ध विश्वविद्यालय था किंतु यहां पर सनातन संस्कृति, वेद इतिहास, पुराण, तर्कशास्त्र, ज्योतिष, आयुर्वेद, खगोलशास्त्र, मनोविज्ञान, वास्तुशास्त्र, चित्रकला आदि विषयों की भी पढ़ाई होती थी।
नालंदा विश्वविद्यालय में चीन, कंबोडिया, थाईलैंड, कोरिया, जापान, सिंहल द्वीप तथा पर्सिया आदि देशों से छात्र अध्ययन के लिए आते थे।
नालंदा विश्वविद्यालय में आर्यभट्ट, नागार्जुन, शीलभद्र, ह्वेनसांग तथा इत्सिंग (चीनी बौद्ध यात्री), नागार्जुन के छात्रआर्यदेव तथा चंद्रकीर्ति; अतिश (महायान और वज्रयान के विद्वान), धर्मकीर्ति (तर्कशास्त्री) धर्मपाल आदि विद्वानों ने अध्ययन किया था।
नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन करने वाले छात्रों एवं आचार्यों के लिए छात्रावास की सुविधा उपलब्ध थी।
यहां इस तथ्य का उल्लेख कर देना उचित होगा कि नालंदा विश्वविद्यालय का वर्णन किसी भी प्राचीन भारतीय पुस्तक में नहीं है। नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में हमें ह्वेनसांग और इत्सिंग के विवरण से जानकारी मिलती हैं।
ह्वेनसांग और इत्सिंग के लेखों के आधार पर ही अलेक्जेंडर कनिंघम ने नालंदा विश्वविद्यालय की खोज की।
व्हेनसांग और इत्सिंग चीन से भारत यात्रा पर आए थे। ह्वेनसांग ने नालंदा विश्वविद्यालय में 2 वर्ष तक अध्ययन भी किया था।
नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्त वंश के शासक कुमारगुप्त ने किया था।कुमारगुप्त का शासनकाल 415 ईस्वी से 455 ईसवी तक था।
नालंदा विश्वविद्यालय में शिक्षा निशुल्क थी लेकिन वहां की प्रवेश परीक्षा कठिन थी। नालंदा विश्वविद्यालय के द्वारपाल भी बहुत विद्वान होते थे। विश्वविद्यालय मैं प्रवेश के लिए आने वाले लोगों की प्रवेश परीक्षा कई बार द्वारपाल ही कर लिया करते थे। नालंदा विश्वविद्यालय के संचालन के लिए कई गांव दान में दिए गए थे।
व्हेनसांग के अनुसार नालंदा में 10000 छात्र तथा 2000 आचार्य थे।
गुप्त शासकों के बाद हर्षवर्धन ने नालंदा को खूब संरक्षण दिया।
प्राचीन तिब्बती स्त्रोतों से हमें पता चलता है कि नालंदा विश्वविद्यालय में एक बहुत बड़ा पुस्तकालय था जिसका नाम था धर्मगंज। पुस्तकालय के अंतर्गत विश्वविद्यालय में तीन बहुमंजिला इमारतें थी जिनका नाम रत्नसागर, रत्नोदधि तथा रत्नरंजक था। नालंदा विश्वविद्यालय में 90 लाख पांडुलिपियां थी।
नालंदा विश्वविद्यालय का विध्वंस 1194 में बख्तियार खिलजी द्वारा किया गया। बख्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट करके उसके पुस्तकालय में आग लगा दी और पुस्तकालय 3 महीनों तक चलता रहा।पुस्तकालय के 3 महीने तक जलने का उल्लेख तबकात ए नासिरी में किया गया है।
नालंदा विश्वविद्यालय में पठन-पाठन का कार्य करने वाले छात्रों और आचार्यों की हत्या कर दी गई।नालंदा विश्वविद्यालय के विनाश की जानकारी हमें तबकात ए नासिरी नामक ग्रंथ से प्राप्त होती है जिसकी रचना मिन्हाज उस सिराज ने की है।बख्तियार खिलजी का उल्लेख करने वाला एकमात्र ग्रंथ तबकात ए नासिरी ही है।
तबकात ए नासिरी ग्रंथ में मोहम्मद गोरी से नसीरूद्दीन महमूद तक के समय का इतिहास हमें पता चलता है।
बख्तियार खिलजी द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट करने के पीछे एक जनश्रुति प्रचलित है जिसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। एक बार बख्तियार खिलजी बीमार हो गया और उसको ठीक करने के लिए नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेदाचार्य राहुल शीलभद्र को बुलाया गया।
बख्तियार खिलजी ने कहा कि आपके द्वारा दिया गया कोई भी औषधि मैं नहीं लूंगा और किसी दूसरे प्रकार से आप मुझे ठीक कर सकते हैं तो उचित है।
आचार्य शीलभद्र ने बख्तियार खिलजी को कुरान पढ़ने के लिए दिया और कुछ दिनों तक कुरान पढ़ने के बाद बख्तियार खिलजी स्वस्थ हो जाता है।
कुरान के पन्नों में आचार्य ने कुछ औषधि का लेप कर दिया था और पढ़ने को पलटते समय थूक लगाने के कारण औषधि बख्तियार खिलजी के शरीर में चला जाता था इस प्रकार वह स्वस्थ हो गया।
बख्तियार खिलजी को इस बात से अत्यंत ईर्ष्या हुई कि बिना औषधि के स्वस्थ कर पाने की कला भारतीय परंपरा में विद्यमान हैं।
बख्तियार खिलजी के अनुसार इस्लामिक परंपरा ही सर्वश्रेष्ठ है अतः भारतीय परंपरा में इतना महत्वपूर्ण ज्ञान नहीं होना चाहिए अतः उसने नालंदा विश्वविद्यालय को ध्वस्त करने का आदेश दे दिया।
हम जानते हैं कि जब भी मुस्लिम भारतीय क्षेत्रों पर आक्रमण करते थे तो वह मंदिरों को ध्वस्त करते थे जो भी हिंदुओं से संबंधित उनकी संस्कृति का प्रतीक होता था वह उसका विनाश कर देते थे यही कारण पर्याप्त है कि उन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय को भी नष्ट कर दिया।
नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेष आज भी बिहार के राजगीर में स्थित है।
बख्तियार खिलजी का जन्म अफगानिस्तान के हेलमंद प्रांत में हुआ था। वह मोहम्मद गौरी की सेना में था।
कुतुबुद्दीन ऐबक ने बख्तियार खिलजी को बिहार और बंगाल का सूबेदार बनाया था।
नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट करने से पहले बख्तियार खिलजी ने बिहार के राजा इंदुमन भीरु पर आक्रमण किया था।
इंदुमन भीरू को पराजित करने के बाद बख्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय में आग लगा दी और वहां रखी गई 90 लाख पांडुलिपियां जलकर राख हो गई।
बिहार पर आक्रमण करने के बाद बख्तियार खिलजी ने 1203-4 में बंगाल पर आक्रमण किया। बख्तियार खिलजी के आक्रमण के भय से तत्कालीन बंगाल का शासक लक्ष्मण सेन अपनी राजधानी नदिया को छोड़कर पूर्वी बंगाल में चला गया। बख्तियार खिलजी ने नदिया में खूब लूट मचाई।
बख्तियार खिलजी ने बिहार और बंगाल की सीमा पर स्थित लखनौती को बंगाल का नया राजधानी बनाया।
1205 में बख्तियार खिलजी ने तिब्बत पर आक्रमण किया लेकिन उसे पराजय का सामना करना पड़ा।
1205 में पश्चिम बंगाल के भानगढ़ नामक स्थान पर अली मर्दन के द्वारा बख्तियार खिलजी की हत्या कर दी गई।