बरसात की गर्मी
जल रही है धरा
अब है क्या बचा
पानी की समस्या विकट होती जाती
वर्षा ऋतु में भी धरा गिली ना हो पाती
पशु-पक्षी भी हो गए हैं बेचैन
मानव को भी कहां मिलता चैन
धरती पर हरियाली का निशान नहीं
यह बरसात की पहचान नहीं
फिर भी सचेत नहीं होता मानव
नित नित बनता जाता यह दानव
जल की बर्बादी यह करता खूब
करता जाता चूक पर चूक
मानव हो चुका है पतित
क्या करें इनकी बातें
बाद में रह जाएंगे पछताते
मानव हो चुका है नीच
नष्ट होगा सब इसी बीच
जागो तुम हे इंसान
कर्म करो महान
बचा लो वसुधा की पहचान।