सल्फ्यूरिक अम्ल से श्रृंगार रस तक का सफर!

माता कहती हैं कि बच्चा डॉक्टर बनेगा लेकिन पिता कह रहा है कि बच्चा इंजीनियर बनेगा। मैं कहता हूं बच्चे को पहले पेट से बाहर आ जाने दो उससे भी पूछ लो हो सकता है वह साहित्यकार बनना चाहता हो।

हो सकता है बच्चे की रुचि पानीपत के युद्ध में हो लेकिन उससे कहा जाता है कि तुम्हें पाइथागोरस का प्रमेय पढ़ना है। वर्तमान समय में बड़ी अजीब स्थिति उत्पन्न हो चुकी है जबकि माता-पिता बच्चों पर अपने विचार थोपने में व्यस्त हैं। यही कारण है कि कई बच्चे अपने माता-पिता द्वारा चयनित विषय में सफल नहीं हो पा रहे हैं।

Premium Photo | Girl making a chemical experiment in a chemistry lab

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हो सकता है बच्चे की रुचि इतिहास में हो लेकिन माता-पिता कहते हैं कि नहीं तुम्हें गणित ही पढ़ना है। व्यक्ति पड़ोसियों पर ज्यादा नजर रखता है इस कारण अपनी क्षमता को वह समझ नहीं पाता है।जब पता चलता है कि फलाने का लड़का यह विषय पढ़कर अच्छी नौकरी पा गया तो वे अपने भी बच्चे को वही विषय पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। वे यह समझने का प्रयास नहीं करते हैं की उनके बच्चे की क्षमता कितनी है। आवश्यक नहीं है कि तलवार चलाने वाला व्यक्ति कलम भी अच्छे से चला सके।

थूकिस्तान मत बनाओ हिन्दुस्तान को!!!

आजकल के कुछ विद्यार्थी भी ऐसे हैं कि भले ही गणित में कुछ ना आए लेकिन मानविकी वर्ग लेने में उन्हें जैसे शर्म आती है। इंटरमीडिएट कला वर्ग में 50 छात्राओं के बीच में बैठे हुए 10 छात्र इस प्रकार से मुंह लटकाए रहते हैं मानो कला वर्ग लेकर कोई बड़ा अपराध कर दिया हो। पढ़ाई कम प्रदर्शन ज्यादा हो रहा है।लोग वास्तविकता और अपनी क्षमता को समझ नहीं पा रहे हैं। 100 में 70 छात्र-छात्राएं ऐसे होते हैं जो इंटर में विज्ञान पढ़ने के बाद स्नातक में बड़े प्रेम से कला वर्ग को आत्मसात कर लेते हैं। वैज्ञानिक बनने का सपना 1 साल में ही फुस्स हो जाता है। अब यह लोग सूर और तुलसी के दोहे में खो जाना चाहते हैं।1 साल पहले हाइड्रोजन और सल्फर को मिलाकर सल्फ्यूरिक अम्ल बनाने वाले यह लोग उसे लात मारकर अब श्रृंगार रस में डूबने उतराने लगते हैं। त्रिकोणमिति अब बेवफा हो गई और बिहारी के दोहों ने इन्हें अपने प्रेमपाश में जकड़ लिया है।

बुलाती है मगर जाने का नहीं यह वाक्य भूल जाओ और ध्यान रखो यदि कला वर्ग बुलाती है तो इज्जत से चले जाने का वरना साइंस बहुत रुलाती है। जिन लड़कियों को रसायन विज्ञान का क ख ग भी पता नहीं वह भी कला वर्ग लेने में अपमान महसूस करती हैं। भ्रम में पड़कर वैज्ञानिक बनने का सपना देखोगे तो चपरासी बनने लायक भी नहीं रहोगे। हल्के में मत लेना मुझे अनुभव के आधार पर यह बातें बता रहा हूं।

विषय बदलने का यह भागमभाग यहीं पर नहीं रुकता है और आगे भी बना रहता है। B.A में नाम लिखवाने के बाद अंग्रेजी कठिन लगने लगती है तो उसके स्थान पर हिंदी और इतिहास लेने के लिए भी भाग दौड़ मची रहती है।

हमारे नेतागण इस तरह से पार्टियां बदल रहे हैं कि इतनी तेजी से तो जलवायु में भी परिवर्तन नहीं हो रहा है।

बीटेक के बाद बीटीसी करने का भी दौर तेजी से चल रहा है।समझ में नहीं आता है कि यदि बीटेक वाले बीटीसी करेंगे तो बेचारे B.A. वाले क्या करेंगे। जो 3 सालों से मिड डे मील के तहरी को चखने का मन बना रहे थे।

वर्तमान समय में देखने में आ रहा है कि कई घरों में पढ़ाई का वातावरण कम दिखावे का वातावरण ज्यादा परिलक्षित होता है।कन्वेंट स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे के माता-पिता से यदि कहा जाता है कि आपके बच्चे का हिंदी कमजोर है तो वह बड़े खुश होते हैं उन्हें लगता है कि इसका मतलब है अंग्रेजी मजबूत होगी। हालांकि वह भी कमजोर होता है।

चाइनीज लेडी जिसने बदली ओली की बोली

जो लोग अनपढ़ है वह भी अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में भेजने के लिए लालायित हैं। भले ही घर पर भोजपुरी में गाली गलौज से युक्त भाषा का प्रयोग करते हैं। हाल यह है कि एक रोटी कम खाएंगे लेकिन अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ायेंगे। ध्यान रहे कि अंग्रेजी पढ़ाई का एक माध्यम हो सकता है लेकिन विद्वता का प्रमाण पत्र नहीं है।

दिखावे का आलम इस कदर हावी है कि बच्चा भले ही कितने महंगे से महंगे स्कूल में पढ़ता हो उसे ट्यूशन लगाना अनिवार्य हो चुका है। जब ट्यूशन ही पढ़वाना है तो इतने महंगे स्कूल में भेजने की आवश्यकता ही क्या है। क्या स्कूल की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है। कई बार तो स्कूल वाले खुद कहते हैं कि बच्चा कमजोर है उसे ट्यूशन लगवा दिया जाए। अब आगे ऐसे महान माता-पिता के बारे में भी दो चार वाक्य लिख देता हूं जो यह समझते हैं कि कोचिंग का अध्यापक ही उनके बच्चे को सब कुछ पढ़ा दे। जिस स्कूल में यह बच्चे की फीस के नाम पर मोटी रकम देते हैं वहां जाकर कभी नहीं कहते हैं कि हमारा बच्चा पढ़ने में इतना कमजोर है तो आपकी जिम्मेदारी तय होती है।

वह बच्चा जो बाजार से 2 किलो आलू खरीद कर नहीं ला सकता है ऐसे बच्चे के पीठ पर 5 किलो का बैग ला दिया जाता है। पानी का बोतल तो मैं भूल ही गया। खाना भी होता है। हमारे समय में तो ऐसा कुछ भी आडंबर नहीं था। सीधे-सीधे स्कूल जाना होता था। जिस दिन स्कूल नहीं जाते थे उस दिन घर पर खाना नहीं दिया जाता था। अनुशासन कड़ा था लेकिन दिखावा नहीं था। पैदल 2 किलोमीटर का सफर तय करना होता था। आजकल के बच्चों के लिए तो बस उपलब्ध हो चुकी है।कई माता-पिता तो ऐसे हैं जो बच्चे को स्कूल पहुंचाने भी जाते हैं और स्कूल से लेकर भी आते हैं।

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आजकल कई स्कूलों में देखा जा सकता है कि बच्चे विद्यालय के अध्यापक को उतना महत्व नहीं देते हैं बल्कि कोचिंग में पढ़ाने वाला अध्यापक उन्हें ज्यादा विद्वान और योग्य समझ में आता है। हम लोग स्वाध्याय पर ज्यादा जोर देते थे लेकिन लगता है आजकल के छात्र-छात्राएं घर से स्कूल, स्कूल से कोचिंग, कोचिंग से घर की यात्रा पर ज्यादा जोर देते हैं। नासमझी में अपना समय और पैसा दोनों बर्बाद किया जा रहा है। हद तो तब हो जाती है जब उम्र दराज लोग B.Ed और TET की आसान परीक्षा भी पास करने के लिए भी कोचिंग का सहारा लेते हैं।इन परीक्षाओं में बैठने वाली कई महिलाएं ऐसी भी होती हैं जिन्हें ओएमआर शीट भी भरने नहीं आता है। फिर भी टीचर बनने के लिए परेशान रहते हैं। शिक्षिका बनकर एक अच्छे वर को प्राप्त करने के सपने को धक्का लग जाता है। लेकिन मुझे लगता है आलसी लोगों की पहली पसंद सरकारी टीचर की ही नौकरी है।

आजकल डिग्री लेने वाले ज्यादा और पढ़ाई करने वाले कम दिख रहे हैं। हमारे आसपास अनेक प्राइवेट कॉलेज खुल गए हैं जिनका काम ही है पैसा लेना और बदले में डिग्री देना। दिखावे के लिए डिग्री लेकर बेरोजगारों की बारात में वे भी शामिल हो जाते हैं। लड़कियों को B.Ed और डी एल एड की डिग्री दिलवा दी जा रही है ताकि उनका विवाह अच्छे घरों में हो जाए। कई ऐसे माता-पिता है जो केवल विवाह के कारण ही लड़कियों को कुछ उच्च शिक्षा दिलवाने में रुचि ले रहे हैं अन्यथा विवाह होने के बाद सब पढ़ाई लिखाई बंद।

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