आइए ले चलते हैं आपको कोहिनूर हीरे की गोलकुंडा की खान से निकलकर लंदन तक पहुंचने की यात्रा पर।

नादिर शाह की एक बेगम ने कहा था कि यदि कोई एक शक्तिशाली व्यक्ति एक ही स्थान पर खड़े होकर चारों दिशाओं में पूरी शक्ति से एक पत्थर फेंके और उसी शक्ति से ऊपर भी एक पत्थर फेंका जाए तथा जहां तक वह पत्थर पहुंचे उन स्थानों के बीच को यदि सोने और चांदी से भर दिया जाए तो भी वह कोहिनूर हीरे की मूल्य की बराबरी नहीं कर सकता। मुगल बादशाह बाबर ने कहा था कि इसका मूल्य इतना है कि धरती पर प्रत्येक व्यक्ति को एक दिन का खाना खिलाया जा सकता है।

यहां यह उल्लेख कर देना महत्वपूर्ण है कि कोहिनूर हीरे का वर्तमान नाम पर्शिया के शासक नादिरशाह द्वारा दिया गया जिसने 1739 में दिल्ली पर आक्रमण किया और दिल्ली के बादशाह से इस हीरे को छीन लिया था। कोहिनूर का अर्थ है प्रकाश का पर्वत। चकाचौंध, अद्भुत और दुर्लभ यह हीरा इतिहास में सभी शासकों की आंखों का चहेता रहा। न ही इसे कभी खरीदा गया और ना ही बेचा गया। खिलजी शासकों, मुगल वंश, पर्सिया तथा अफगान राजाओं से होता हुआ यह ब्रिटेन में टावर ऑफ लंदन तक पहुंचा। कोहिनूर हीरे की यात्रा बड़ी रोचक है।

कोहिनूर हीरे का जटिल इतिहास 13 वीं शताब्दी से प्रारंभ होता है। 793 कैरेट के भार वाला कोहिनूर हीरा गोलकुंडा की खानों से प्राप्त हुआ था जो उस समय काकतीय राजवंश के अंतर्गत आता था। ऐतिहासिक ग्रंथों के अनुसार वारंगल के काकतीय मंदिर में इस हीरे का प्रयोग देवता की आंख के रूप में किया जाता था।

खिलजी वंश का दूसरा शासक अलाउद्दीन खिलजी अत्यंत महत्वाकांक्षी था जिसने 14वीं शताब्दी के प्रारंभ में दक्षिण भारत के राज्यों को लूटना प्रारंभ कर दिया। वारंगल पर एक आक्रमण के समय अलाउद्दीन खिलजी के सेनानायक मलिक काफूर ने इस मूल्यवान हीरे को प्राप्त किया। इसके बाद यह दिल्ली सल्तनत के राजाओं को हस्तांतरित होता गया।

1526 में बाबर ने पानीपत के प्रथम युद्ध में दिल्ली के शासक इब्राहिम लोदी को हरा दिया। युद्ध में विजयी होने के बाद बाबर को पता चला कि आगरा के किले में बहुत खजाना है जिसमें अवर्णनीय कोहिनूर हीरा भी है। अतः बाबर ने इसे वहां से प्राप्त कर लिया और इसे नाम दिया ‘बाबर का हीरा’। बाबर ने इसका उल्लेख अपनी आत्मकथा बाबरनामा में भी किया है।

बाबर की मृत्यु के बाद यह हीरा उसके पुत्र हुमायूं को मिला जिसके बाद यह आगामी मुगल शासकों को हस्तांतरित होता रहा। शाहजहां ने इस अमूल्य रत्न को अपने ऐतिहासिक मयूर सिंहासन (तख्त-ए-ताउस) में लगवाया।

औरंगजेब के शासनकाल में एक फ्रांसीसी यात्री टैवर्नियर ने दुर्लभ और शानदार रत्नों की खोज में भारत की यात्रा की। वह रत्नों का पारखी भी था। औरंगजेब ने जब उसे हीरा दिखाया तो उसने हीरे का एक चित्र बनाया।

जब औरंगजेब का पौत्र मुहम्मद शाह 1739 ई. में दिल्ली पर शासन कर रहा था तो पर्शिया के शासक नादिरशाह ने दिल्ली पर आक्रमण कर दिया। उसने मुगल साम्राज्य के खजाने के साथ-साथ मयूर सिंहासन तथा कोहिनूर हीरे को भी ले लिया। हीरे की सुंदरता से अभिभूत अचानक नादिरशाह के मुंह से शब्द निकला कोहिनूर जिसका अर्थ है प्रकाश का पर्वत। कहा जाता था कि मोहम्मद शाह इस हीरे को अपनी पगड़ी के अंदर छुपा कर रखता था।

पर्सिया पहुंचने के तुरंत बाद नादिरशाह की हत्या हो गई तथा हीरा अहमद शाह अब्दाली के हाथ में आ गया जो उसका एक प्रमुख सेनानायक था तथा वह बाद में अफगानिस्तान का शासक भी बना।अहमद शाह अब्दाली ने 1761 में भारत पर आक्रमण किया तथा मराठों के साथ पानीपत का तृतीय युद्ध लड़ा और उसमें विजय प्राप्त की।

पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने अहमद शाह अब्दाली के एक वंशज शाह सुजा की अफगानिस्तान का सिंहासन प्राप्त करने में सहायता की जिसके कारण उसने इस हीरे को वापस उन्हें 1813 में दे दिया। इस प्रकार अंततः हीरा भारत में वापस आ गया।

यह हीरा महाराजा रणजीत सिंह के पास अगले 20 सालों तक रहा।महाराजा रणजीत सिंह ने वसीयत किया था कि कि यह हीरा उड़ीसा के पुरी में जगन्नाथ मंदिर को दे दिया जाएगा लेकिन 1839 में उनकी मृत्यु के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस समझौते का पालन नहीं किया।

महाराजा रणजीत सिंह के पुत्र दिलीप सिंह अंग्रेजों से द्वितीय आंग्ल सिख युद्ध हार गए और पंजाब का अंग्रेजी साम्राज्य में विलय कर लिया गया। लॉर्ड डलहौजी के अंतर्गत लाहौर की अंतिम संधि पर हस्ताक्षर हुए और महाराजा के अन्य खजानों के साथ-साथ कोहिनूर हीरे को औपचारिक रूप से ब्रिटेन की महारानी को समर्पित कर दिया गया। इस समझौते में लिखा हुआ था कि रत्न जिसे कोहिनूर कहा जाता है उसे लाहौर के महाराजा रणजीत सिंह ने शाह शुजा उल मलिक से लिया था जिसे इंग्लैंड की महारानी को समर्पित किया जाता है।

6 अप्रैल 1850 को कोहिनूर हीरे ने भारत भूमि को अलविदा कह दिया। इस प्रकार भारतवर्ष के एक अमूल्य रत्न को विदेशियों ने हड़प लिया।कोहिनूर हीरे को भारत से इतने गुपचुप तरीके से लंदन ले जाया गया कि कहा जाता है जिस जहाज से यह ब्रिटेन गया उस जहाज के कप्तान को भी नहीं पता था कि यह अमूल्य रत्न उसकी जहाज से ले जाया जा रहा है।

लंदन के हाइड पार्क में आयोजित एक भव्य समारोह में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा यह हीरा औपचारिक रूप से क्वीन विक्टोरिया को प्रदान किया गया।

क्वीन विक्टोरिया ने हीरे की भव्यता को बढ़ाने के लिए इसमें कुछ सुधार करने का निश्चय किया। हीरे को पुनः तराशने का कार्य प्रारंभ हुआ और 38 दिन लगे तथा इसमें 8000 पाउंड खर्च हुए। परिणाम स्वरुप इसका आकार अंडाकार हो गया तथा वजन 108.93 कैरेट रह गया। डच जौहरी के प्रयास के बावजूद इसका भार अत्यधिक घट गया। 1853 में इस हीरे को महारानी के मुकुट के ऊपर लगाया गया जिसमें पहले से ही दो हजार से ज्यादा हीरे जड़े हुए थे। क्वीन विक्टोरिया इसे राजशाही कार्यक्रमों में अधिकतर पहनने लगी तथा उन्होंने यह नियम बनाया कि इस कोहिनूर को केवल राजशाही परिवार की रानियां ही पहनेंगी। जिसके परिणाम स्वरूप इस हीरे को अब तक ब्रिटिश राजशाही परिवार में रानी विक्टोरिया, रानी एलेग्जेंड्रा, रानी मेअरी तथा क्वीन एलिजाबेथ द्वारा ही पहना गया है।

 

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