घाघरा का युद्ध

घाघरा का युद्ध अफगानों और बाबर के मध्य 1529 में हुआ .यद्यपि खानवा के युद्ध में विजय के पश्चात बाबर निर्विवादित रूप से दिल्ली का सम्राट बन चुका था फिर भी उसे बचे हुए अफगान सरदारों को पराजित करने के लिए युद्ध लड़ना पड़ा।घाघरा का युद्ध बाबर द्वारा लड़ा गया भारत में उसका अंतिम युद्ध था।

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बिहार में घाघरा नदी के किनारे लड़े गए इस युद्ध को घाघरा युद्ध के नाम से जाना जाता है। संभवतः यह मध्यकाल का पहला ऐसा युद्ध था जो जल एवं स्थल दोनों पर लड़ा गया। कहा जाता है कि युद्ध में हुए रक्तपात के कारण घाघरा नदी लाल हो गई थी। घाघरा का युद्ध बाबर ने जीता तथा इस  युद्ध में अफ़गानों की हार हुई थी।

चंदेरी का युद्ध ( 29 जनवरी 1528)

बाबर ने 1527 में खानवा के युद्ध में राजपूतों के साथ-साथ अफगानों को भी पराजित कर दिया। लेकिन इस युद्ध के बाद भी अफ़गानों की शक्ति पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हुई। इब्राहिम लोदी के छोटे भाई महमूद लोदी ने भागकर गुजरात में शरण ली।वह किसी भी तरह बाबर को हराकर दिल्ली की गद्दी को प्राप्त करना चाहता था। जिस समय बाबर ने इब्राहिम लोदी को पराजित किया उस समय भी बिहार और बंगाल के अधिकांश क्षेत्रों पर अफ़गानों का शासन था।

खानवा का युद्ध (16 मार्च 1527)

पानीपत के युद्ध के बाद बिहार में अफ़गानों के विद्रोह को दबाने के लिए हुमायूं के नेतृत्व में बाबर ने सेना भेजी थी लेकिन राणा सांगा से खतरे का अहसास होते ही उसने हुमायूं को तत्काल वापस बुला लिया था। खानवा के युद्ध में राजपूतों पर अपना प्रभाव स्थापित करने के बाद बाबर ने अफगानों की समस्या को संपूर्ण रूप से मिटाने का निर्णय लिया। बाबर अब अफगानों को और अधिक मौका देना नहीं चाहता था. अतः चंदेरी विजय के पश्चात उसने अफगानों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया।

पानीपत के प्रथम युद्ध में बाबर ने दिल्ली के अफगान शासक इब्राहिम लोदी की हत्या कर दी और दिल्ली पर कब्जा कर लिया। लेकिन इब्राहिम लोदी का छोटा भाई महमूद लोदी दिल्ली को वापस प्राप्त करना चाहता था और उसके इस प्रयास में बिहार और बंगाल के अफगान शासक उसका सहयोग कर रहे थे जिसमें बंगाल का शासक नुसरत साह प्रमुख था।

पानीपत का प्रथम युद्ध(21 अप्रैल 1526)

दिल्ली सल्तनत पर आखिरी बार लोदी राजवंश ने अफगान शासक के रूपी में शासन किया. बाद में बाबर के आने के बाद हालात बदल गए। बाबर ने पानीपत के युद्ध में अफगान शासन का अंत कर दिया. शेरशाह सूरी ने हुुुुमायूं को हराकर एक बार फिर अफगानियों को सत्ता दिलाने की कोशिश की, लेकिन बादशाह अकबर के आगे उनका बस नहीं चल सका. इस तरह दिल्ली का तख्त अफगानियों के हाथ से जो एक बार निकला तो कभी वापिस नहीं आ सका।

 

घाघरा के युद्ध से पहले का घटनाक्रम

पानीपत और खानवा की जंग के बाद अफ़गानों के पास न तो सेना थी और न ही हथियार. ऐसे में अंदर ही अंदर केवल विद्रोह की चिंगारी भड़क रही थी. इस चिंगारी को हवा देने का काम बंगाल के शासक सुल्तान नुसरत शाह ने किया.

उसका पूरा सहयोग अफगानी विद्रोहियों को मिल रहा था। बंगाल के शासक भी नहीं चाहते थे कि बाबर का विजय अभियान जारी रहे, लेकिन सीधे तौर पर वह उसका सामना करने के लिए तैयार नही थें. यही वजह थी कि वे विद्रोहियों की सहायता करके अपने मन को तृप्त करते रहे थे।

कहते हैं कि जब बाबर चंदेरी के विजय अभियान में व्यस्त था, तब अफगान विद्रोहियों ने अवध में कोहराम मचाना शुरू कर दिया. हालांकि, इससे बाबर की तैयारियों पर तो कोई फर्क नहीं पड़ा, लेकिन वह विद्रोह को दबा पाने में नाकाम था. इसका परिणाम यह हुआ कि अफगानियों ने कन्नौज और शमशाबाद पर अधिपत्य कर लिया.

अब वे आगरा को जीतने की योजना बना रहे थे। इस दौरान बाबर चंदेरी के युद्ध में व्यस्त था। युद्ध खत्म होने के बाद उसे अफगानियों के बढ़ते विद्रोह और आगरा पर अधिपत्य करने के प्रयास की जानकारी मिली।

 

जब बाबर चंदेरी में था तब अफ़गानों ने अवध में उत्पात मचा रखा था। अतः चंदेरी से बाबर सीधे अवध की तरफ बढ़ा। बाबर ने लखनऊ पर अधिकार कर लिया। इधर बिहार में अफगान महमूद लोदी के नेतृत्व में अपने आप को संगठित कर रहे थे। बंगाल के सुलतान से भी उन्हें सहायता मिल रही थी। यह कहा जा सकता है कीअफगानों द्वारा पुनः दिल्ली को प्राप्त करने का प्रयास घाघरा युद्ध का कारण था. 

घाघरा का युद्ध

अफगानों ने बनारस से आगे बढ़ते हुए चुनार का दुर्ग घेर लिया. इन घटनाओं की सूचना पाकर बाबर तेजी से बिहार की तरफ बढ़ा. उसके आने का समाचार सुनकर अफगान डर कर चुनार का घेरा छोड़कर भाग गए. बाबर ने महमूद लोदी को शरण नहीं देने का निर्देश दिया पर नुसरतशाह द्वारा उसका प्रस्ताव ठुकरा दिया गया जिसके बाद 6 मई, 1529 को बिहार में घाघरा के किनारे बाबर और अफगानों की मुठभेड़ हुई.

महमूद लोदी को प्रतीत हुआ कि पानीपत और खानवा के युद्ध के बाद बाबर की सेना कमजोर हो गई होगी और उसे हराना आसान होगा। अतः वह बिना किसी विशेष तैयारी के इस युद्ध में कूद पड़ा। अफगानियों के सीने में बदले की आग दहक रही थी लेकिन उनकी सेना बाबर की तुलना में कमजोर थी। अतः जब घाघरा नदी के किनारे मुगलों की सेना से अफगानियों का सामना हुआ तो उन्होंने जान बचाने के लिए नदी में उतर जाना उचित समझा। लेकिन मुगल सैनिक नदी में भी उनके पीछे पड़ गए। अतः दोनों के बीच जल एवं स्थल दोनों में युद्ध प्रारंभ हो गया।

अफगान घाघरा की लड़ाई  में बुरी तरह हार गए। महमूद लोदी ने भागकर बंगाल में शरण ली। नुसरतशाह ने बाबर से संधि कर ली। उसे लगा कि यदि बाबर ने बंगाल पर आक्रमण किया तो अपनी सत्ता बचाए पाना मुश्किल था। दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर आक्रमण नहीं करने और एक-दूसरे के शत्रुओं को शरण नहीं देने का वचन दिया।

लेकिन नुसरत शाह ने महमूद लोदी को बाबर के सुपुर्द नहीं किया। अपितु उसने बाबर को वचन दिया कि महमूद लोदी को बंगाल से बाहर नहीं जाने दिया जाएगा। महमूद लोदी को बंगाल में ही एक जागीर दे दी गई। शेर खां के प्रयासों से बाबर ने बिहार के शासक जलालुद्दीन के राज्य के कुछ भागों को लेकर उससे संधि कर ली और उससे अपनी अधीनता स्वीकार करवा कर उसे प्रशासक के रूप में बने रहने दिया. इस प्रकार, घाघरा के युद्ध का यह  परिणाम हुआ की  अफगानों की शक्ति पर थोड़े समय के लिए पूर्णतः अंकुश लग गया।

लगातार युद्ध के बाद शांति की इच्छा

दिल्ली पर अपनी सत्ता स्थापित करने के बाद बाबर को लगातार कई युद्ध लड़ने पड़े थे। लगता है इस कारण वह थक चुका था और आगे वह युद्ध नहीं करना चाहता था इस कारण उसने बिहार और बंगाल के अफ़गानों से संधि कर ली जिससे स्पष्ट है कि अब वह संघर्ष नहीं चाहता था।

घाघरा के युद्ध के बाद बाबर सिंधु से लेकर बिहार और हिमालय से लेकर ग्वालियर और चंदेरी तक का शासक बन चुका था। लगातार युद्ध लड़ने के कारण बाबर प्रशासनिक सुधार पर ध्यान नहीं दे सका। अपने द्वारा जीते हुए क्षेत्र में शांति स्थापित करने के बाद वह काबुल जाना चाहता था। वह काबुल के लिए निकल पड़ा लेकिन लाहौर पहुंचते ही राज्य में शत्रुओं के षड़यंत्र की सूचना मिलते ही वापस चला आया। उसने हुमायूं को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया और इसके 3 दिन बाद ही 26 दिसंबर 1530 को बाबर परलोक सिधार गया। बाबर की मृत्यु के बाद उसे आगरा में दफना दिया गया लेकिन बाद में उसे फिर काबुल में दफनाया गया।

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