बक्सर का युद्ध कब हुआ था

 

बक्सर का युद्ध 1764  में  बंगाल के नवाब मीरकासिम और अंग्रेजों के मध्य हुआ था. बक्सर की लड़ाई में अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा मुग़ल सम्राट शाह आलम द्वितीय ने मीरकासिम का साथ दिया था. बक्सर के युद्ध में अंग्रेजों का नेतृत्व हेक्टर मुनरो ने किया था .

1757 में प्लासी युद्ध के बाद अंग्रेजो ने मीरजाफर को बंगाल का नवाब बना दिया और कंपनी ने बंगाल में मनमानी प्रारंभ कर दी।फलस्वरूप बंगाल में अव्यवस्था फ़ैल गई और अंग्रेजो ने इसका आरोप नवाब पर लगा कर उसे गद्दी से हटा दिया और मीरजाफर के दामाद मीरकासिम को बंगाल का नवाब बना दिया। मीर कासिम एक योग्य शासक साबित हुआ। वह अंग्रेजों की चाल को अच्छी तरह समझता था।मीर कासिम ने रिक्त राजकोष, बागी सेना, विद्रोही जमींदार जैसी विकट समस्याओ का हल निकाल लिया। बकाया लागत वसूल ली, कम्पनी की माँगें पूरी कर दी, हर क्षेत्र में उसने कुशलता का परिचय दिया। अपनी राजधानी मुंगेर ले गया, ताकि कम्पनी के कुप्रभाव से बच सके। सेना तथा प्रशासन का आधुनिकीकरण आरम्भ कर दिया। उसने अंग्रेजों के महत्वकांक्षा पर लगाम लगाने का प्रयास किया।

उसने दस्तक पारपत्र के दुरूपयोग को रोकने हेतु चुंगी ही हटा दी। मार्च 1763 में कम्पनी ने इसे अपने विशेषाधिकार का हनन मान युद्ध आरम्भ कर दिया। दोनों के बीच युद्ध होना ही था क्योंकि दोनों पक्ष अपने अपने हितों की पूर्ति में लगे थे। कंपनी ने मीर कासिम को एक कठपुतली मानकर उसे गद्दी पर बिठाया था लेकिन कंपनी का यह अनुमान गलत निकला।

1764 मैं बक्सर के युद्ध से पूर्व ही कटवा, गीरिया, उदोनाला की लडाइयों में नवाब हार चुका था उसने दर्जनों षड्यन्त्रकारियों को मरवा दिया क्योंकि वह मीर जाफर का दामाद था और सिराजुद्दौला के साथ हुए षड्यंत्र को भली-भांतिि समझता था।

बंगाल से लेकर बिहार तक अंग्रेजों का दखल बढ़ता जा रहा था अतः मीर कासिम ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला और मुगल सम्राट शाह आलम से मिलकर अंग्रेजों को पूर्ण रूप से रोकने की योजना बनाई।

किंतु इन तीनों के मध्य आपसी सामंजस्य का अभाव था जिसके कारण इस गठबंधन को हार का सामना करना पड़ा। इनके बीच कई ऐसे विश्वासघाती थे जो अंग्रेजों से मिले हुए थे। इनमें सिताब राय का नाम प्रमुख है जो बिहार का एक प्रतिष्ठित व्यक्ति था जिसे राजा की उपाधि मिली थी। सिताब राय ने बक्सर के युद्ध में अंग्रेजो का पूरा साथ दिया। सिताब राय का बेटा कल्याण सिंह शुजाउद्दौला के यहां मुलाजिम के पद पर था और अपने यहां के सेना की संख्या और उनके रणनीति की पूरी जानकारी अंग्रेजों को देता था। अंग्रेजों ने कल्याण सिंह और एक सैयद गुलाम हुसैन के जरिए अवध कि सेना की पूरी जानकारी इकट्ठी कर ली।

इसी बीच मीरकासिम अवध के नवाब शुजाउद्दौला और सम्राट शाहआलम  से संधि कर बंगाल पर अधिकार के लिए पटना पहुँचा. सम्मिलित सेना के आगमन की सूचना पाकर अंग्रेजी सेना घबरा गयी। शुजाउद्दौला की सेना में योग्य सैनिको की संख्या कम थी अधिकतर संख्या भीड़ मात्र ही थी। शुजाउद्दौला की सेना द्वारा पटना की घेराबंदी की गई परन्तु शुजाउद्दौला की सेना में भी अनेक विश्वाघाती व्यक्ति थे। मेजर मुनरो अंग्रेजों का सेनापति नियुक्त होकर जुलाई 1764 में पटना पहुंचा।उसे भय था कि देर होने पर मराठों और अफ़गानों का सहयोग पाकर शुजाउद्दौला अंग्रेजों को पराजित कर सकता है। मुनरो ने रोहतास के किलेदार साहूमल को प्रलोभन देकर अपने पक्ष में कर लिया और रोहतास पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया।रोहतास का किला अंग्रेजों के हाथ आ जाने पर शुजा को पटना से कर्मनाशा के तट पर स्थित बक्सर की ओर भागना पड़ा।इसके बाद शीघ्र ही मेजर मुनरो आगे बढ़ा और दोनों पक्षों के बीच बक्सर के मैदान में भयानक युद्ध हुआ। युद्ध में अपनी हार होता देख शुजा वहां से भाग खड़ा हुआ। मुगल बादशाह ने हार मान ली और वह अंग्रेजों की शरण में आ गया। मीर कासिम अपने प्राणों को बचाने के लिए पहले ही भाग चुका था। अंग्रेजों ने कर्मनाशा पारकर चुनार का किला घेर लिया। इसी बीच डर के मारे बनारस का राजा बलवंत सिंह भी अंग्रेजों से मिल गया।

युद्ध क्षेत्र से भागने के बाद शुजा ने रुहेलो और मराठों से मदद मांगी। लेकिन पानीपत के तृतीय युद्ध(1761) में करारी हार के बाद स्वयं मराठों की हालत खराब हो गई थी और वे किसी की सहायता करने के लायक नहीं थे और अपना स्वयं का साम्राज्य बचाने के चक्कर में मदद के लिए लिए इधर उधर भाग रहे थे।

शुजा का पीछा करते हुए अंग्रेजों ने इलाहाबाद और लखनऊ पर भी कब्जा जमा लिया। कहीं से सहायता ना मिलने के बाद जब 3 मई 1765 को कोरा के मैदान में(फतेहपुर,उ.प्र.) शुजा का सामना सर रॉबर्ट फ्लेचर की तोपों से हुआ तो अंततः उसने आत्मसमर्पण कर दिया। युद्ध की समाप्ति के बाद अंग्रेजों ने इलाहाबाद की संधि नाम से दो अलग-अलग संधियां मुगल सम्राट शाह आलम तथा अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ की। इस युद्ध में हुए नुकसान के हर्जाने के रूप में अंग्रेजों ने शुजा से साठ लाख रुपए प्राप्त किए।

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने मीर जाफर के मृत्यु के बाद उसके पुत्र नज्मुद्दौला को बंगाल का नवाब बना दिया। वह भी मीर जाफर की तरह एक कठपुतली मात्र ही था। दूसरी तरफ बक्सर के युद्ध में हार के बाद अपनी जान बचाते हुए मीर कासिम भागने में सफल रहा लेकिन बंगाल से अंग्रेजों को भगाने करने का उसका सपना पूरा नहीं हो पाया। वह युद्ध क्षेत्र से भागकर दिल्ली चला गया। बाकी का जीवन उसके लिए कष्टपूर्ण रहा और दिल्ली में ही 1777 ई. में उसकी मौत हो गई।

 

इलाहाबाद की द्वितीय संधि (16 अगस्त, 1765 ई.)-

यह संधि अंग्रेजों तथा अवध के नवाब शुजाउद्दौला के मध्य सम्पन्न हुई । इस संधि की शर्तें निम्नवत थीं-

  1. कंपनी को अवध में कर मुक्त व्यापार करने की सुविधा प्राप्त हो गई।

  2. अवध की सुरक्षा हेतु नवाब के खर्च पर कंपनी की एक सैन्य टुकड़ी अवध में रखी गई।

  3. शुजाउद्दौला को काशी के राजा बलवंत सिंह से पहले की ही तरह लगान वसूलने का अधिकार वापस दे दिया गया।

  4. इलाहाबाद और कड़ा को छोड़कर अवध का शेष क्षेत्र नज्मुद्दौला को दे दिया गया।

बक्सर के युद्ध में मीरकासिम की हार के बाद निर्णायक रूप से भारतीयों की दासता का एक नया युग प्रारंभ हो जाता है। दिल्ली से लेकर बंगाल तक के नवाब अंग्रेजों के पेंशनभोगी बन जाते हैं। पानीपत के तृतीय युद्ध के बाद मराठों की भी कमर टूट जाती है।ज्यादातर राज्यों के शासक अंग्रेजों पर निर्भर रहने लगे। अब भारत के राजाओं में अंग्रेजों का सामना करने का साहस नहीं बचा। धीरे धीरे भारत के सामाजिक, नैतिक, आर्थिक, और राजनीतिक मूल्यों का पतन होने लगा। सामान्य जनता की देखभाल करने वाला कोई नहीं रहा। भारतीय नरेशों के पास उत्तरदायित्व था लेकिन अधिकार नहीं जबकि अंग्रेजों के पास अधिकार था लेकिन उत्तरदायित्व नहीं।

 

 

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