नौकरी हम सरकारी स्कूल की करेंगे लेकिन अपने बच्चे को पढ़ाने के लिए हमें प्राइवेट स्कूल चाहिए!!!
हो सकता है यह लेख लिखने के बाद मैं शिक्षकों की गालियों की बौछार से भीग जाऊं। फिर भी आप पाठकों के उत्साहवर्धन के कारण मैं यह लिखने का साहस कर रहा हूं। यह लेख शिक्षकों के आलसपन और कर्तव्य हीनता के बारे में लिखा जा रहा है।कहा जाता था कि उत्तर प्रदेश का सरकारी शिक्षक भारतीय ट्रेन की तरह है जो कभी समय पर पहुंचता ही नहीं है। किंतु अब स्थिति बहुत बदल चुकी है। यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि किसी भी क्षेत्र या व्यवसाय में सब लोग एक ही तरह के नहीं होते हैं।कुछ लोग हैं जो अवश्य बहुत ही अच्छा कार्य कर रहे हैं लेकिन उनकी संख्या अत्यंत अल्प है।शिक्षकों से यहां मुख्य रूप से तात्पर्य उत्तर प्रदेश के सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों से हैं। प्राइवेट वाले तो बेचारे कोल्हू के बैल की तरह कार्य कर रहे हैं।₹50000 पाने वाले सरकारी शिक्षक के पास कोई पढ़ने के लिए नहीं जाना चाहता है और वहीं दूसरी और ₹5000 पाने वाले प्राइवेट शिक्षक के यहां भीड़ लगी हुई है। जब कोई कहता है कि शिक्षक राष्ट्र का निर्माता होता है तो मुझे बड़ी हंसी आती है।किसी व्हाट्सएप मैसेज में जब शिक्षकों के बारे में उच्च आदर्शवाद से युक्त अच्छी गुण की बात आती है तो मुझे यह सोचने पर बाध्य करती है कि क्या सच में स्थिति यह है या कुछ और है।
जब सरकार ने कहा कि प्रेरणा ऐप के माध्यम से शिक्षकों की उपस्थिति लगेगी तो शिक्षकों ने धरना प्रदर्शन प्रारंभ कर दिया। यहां पढ़ाई लिखाई कम धरना ज्यादा होता है। । यदि कोई आपको वेतन दे रहा है तो वह आपको समय से बुला सकता है, यह एक सामान्य सा तथ्य है। यदि शिक्षक ही इस बात को ना समझ पाए तो उनके बारे में क्या कहा जाए। एक बार मैंने एक गुरुजी से पूछा कि शिक्षक संघ का कार्य क्या है? तो उन्होंने बड़ी ईमानदारी से उत्तर दिया कि पढ़ाना कम से कम पड़े और वेतन ज्यादा से ज्यादा मिले। जब एक शिक्षक की ही सोच ऐसी है तो क्या आप उसे राष्ट्र का निर्माता कहेंगे??आपने ध्यान दिया होगा कि शिक्षक संघ कभी भी शिक्षा विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज नहीं उठाता है।
जब सरकार द्वारा शिक्षकों के कार्यों की निगरानी करने के लिए कोई नियम लगाया जाता है तो यह शिक्षक बड़ी संख्या में एकत्रित होकर उसका विरोध करने लगते हैं।इस विरोध प्रदर्शन के माध्यम से वे अपने निकम्मेपन को स्वयं सिद्ध कर देते हैं कि वे विद्यालय केवल धन कमाने के लिए जाते हैं और इमानदारी से पढ़ाने में उनकी कोई रुचि नहीं है।यदि ऐसे शिक्षकों का बच्चा जिस विद्यालय में पढ़ता है उस विद्यालय का अध्यापक भी इनके जैसा व्यवहार करे तो फिर ये क्या कहेंगे?
सियाचिन मैं तैनात हमारे देश के जवानों को भले ही ठंडी लगे या ना लगे लेकिन शीतकाल के समय हमारे यहां के शिक्षकों को विद्यालय के भवन के अंदर भी ठंडी लगती रहती है।मई के महीने में विद्यालय भवन के अंदर इन्हे थार के मरुस्थल से भी ज्यादा गर्मी लगती है। भले ही आप शिक्षकों के बारे में कितनी भी आदर्श की बातें कह दें लेकिन इन पर यदि कड़ी निगरानी ना रखी जाए तो शायद ही यह कभी समय से विद्यालय पहुंचे।जिस विद्यालय के शिक्षकों का हाल यह है तो वहां के छात्र कैसे होंगे आप यह अनुमान लगा सकते हैं।जब यह शिक्षक कहते हैं कि सरकार इनका दमन कर रही है तो मैं कहता हूं प्राइवेट वालों से भी पूछ लो वह बता देंगे कि दमन कहां हो रहा है। दुनिया में हाल यह है कि जिसको मिलता है उसी को शिकायत रहती है जिसको नहीं मिलता है वह आराम से रहता है।जिसके पास नौकरी है वही पेंशन के लिए परेशान रहता है लेकिन जिसके पास नौकरी भी नहीं है उसे पेंशन भी नहीं चाहिए, क्या बात है।
सरकारी शिक्षा व्यवस्था के बेपटरी होने का 60% कारण ऐसे ही शिक्षक हैं तथा 40% कारण सरकार स्वयं है। माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षकों की अत्यंत कमी है किंतु प्राथमिक में पर्याप्त शिक्षक हैं फिर भी उनकी शिक्षा व्यवस्था इतनी निम्न क्यों है पता नहीं चलता। सरकारी शिक्षकों का पठन-पाठन के प्रति समर्पण मुझे दिखाई नहीं देता लगता है केवल वे धनार्जन के लिए विद्यालय आते हैं।अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए हमें प्राइवेट स्कूल चाहिए लेकिन नौकरी के लिए सरकारी स्कूल चाहिए। नौकरी हम सरकारी संस्थान में करना चाहते हैं लेकिन सेवा हम प्राइवेट संस्थानों की लेना चाहते हैं। इसका तात्पर्य है कि हम अपने निकम्मेपन के बारे में भली-भांति अवगत हैं।
शिक्षक कभी भी मिल बैठकर यह चिंतन नहीं करते हैं कि शिक्षा का स्तर इतना नीचे क्यों जा रहा है। किस प्रकार से कार्य करें कि शिक्षा के स्तर को कुछ अच्छा कर सकें। बात होती है तो केवल इस बात पर कि महंगाई भत्ता कम बढ़ाया जा रहा है। यह सुविधा नहीं दी जा रही है। चर्चा होती है तो केवल ऐसे ही स्वार्थ के विषयों पर।इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि सरकारी शिक्षकों के बच्चे प्राइवेट स्कूलों में जाते हैं। इसलिए वे ऐसे स्कूलों पर अच्छी तरह ध्यान देना नहीं चाहते हैं।
अगर शिक्षा जगत को छोड़कर अन्य सरकारी विभागों पर भी हम ध्यान दे तो पाएंगे कि इन विभागों में समय से आने और जाने का कोई निश्चित नियम नहीं रहता है। कर्मचारी मनमाने ढंग से कार्य करते हैं।जब सरकार की तरफ से कोई कठोर नियम लागू किया जाता है तो अपने संगठन के माध्यम से भीड़ जुटाकर यह उस नियम को कर्मचारियों के विरुद्ध दमनात्मक कार्यवाही की संज्ञा देने में लग जाते हैं।
यह तथ्य हमें नहीं भूलना चाहिए कि जहां पर नियमों को कड़ाई से लागू किया जाता है वहीं पर सुधार आता है। जहां पर आप नियम कठोरता से लागू नहीं करेंगे वहां पर अव्यवस्था बनी रहेगी। यदि प्राइवेट विद्यालय का अध्यापक दो दिन विलंब से विद्यालय पहुंचता है तो तीसरे दिन प्रधानाचार्य उसको विद्यालय छोड़ने को कह सकता है।
निजी विद्यालयों में शिक्षक के समय से आने-जाने और उसके पढ़ाने आदि सभी गतिविधियों पर विद्यालय की पैनी नजर रहती है इसी कारण प्राइवेट विद्यालय अच्छी प्रकार से चलते हैं जबकि दूसरी तरफ सरकारी विद्यालयों में इस प्रकार के निरीक्षण का अभाव रहता है जिसका परिणाम आपके सामने है।
अब किसी भी विभाग का कर्मचारी इतना ईमानदार नहीं रहा कि अपने से दिए गए कार्यों का निर्वहन अच्छे से करें अतः संस्थाओं को सुधारने के लिए अनुशासन और नियम महत्वपूर्ण है।
इसका मतलब यह नहीं कि हर शिक्षक निकम्मा है बल्कि इस क्षेत्र में भी कुछ ऐसे लोग हैं जो बहुत ईमानदारी और मेहनत से अपना कार्य कर रहे हैं और उनका सुधार भी दिखाई दे रहा है लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है। कभी-कभी कुछ ऐसे विरले लोग मिल जाते हैं जिन से मिलने के बाद लगता है कि चलो कोई तो है जो अपने शिक्षक के धर्म का निर्वहन करने के प्रति संवेदनशील है। कई ऐसे अध्यापक हैं जो शिकायत में कम और सुधार में ज्यादा विश्वास करते हैं। सदैव ध्यान रखिए कि अंधेरे को कोसने से अच्छा है कि एक दीपक जलाया जाए।