पानीपत का द्वितीय युद्ध कब हुआ था

पानीपत का द्वितीय युद्ध 5 नवंबर 1556 को उत्तर भारत के हिंदू सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य(प्रचलित नाम-हेमू) और अकबर की सेनाओं के बीच हुआ। इस युद्ध के कुछ सप्ताह पहले ही हेमू ने दिल्ली के मुगल गवर्नर को हराकर दिल्ली और आगरा पर कब्जा कर लिया था। इसके बाद उसने दिल्ली के पुराने किले में अपना राज्याभिषेक करवाया और अपने आप को राजा विक्रमादित्य घोषित किया।

अकबर और उसके संरक्षक बैरम खां को जब दिल्ली और आगरा की हार का समाचार मिला तो वह हारे हुए क्षेत्रों को पुनः जीतने के लिए पानीपत की ओर बढ़े। इस प्रकार दोनों की सेनाओं में पानीपत के मैदान में संघर्ष हुआ।

जानिए किस प्रकार पानीपत के प्रथम युद्ध(२१ अप्रैल १५२६) ने भारतवर्ष में मुगल साम्राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया।

 

 

सैनिक दृष्टिकोण से हेमू की सेना अकबर से अच्छी थी और हेमू के पास सैनिक भी ज्यादा थे। इस युद्ध में विजय की ज्यादा संभावना हेमू के पक्ष में थी लेकिन युद्ध के बीच में ही दुर्भाग्यवश एक तीर हेमू की आंख में लग जाता है और वह अपने हाथी से गिर जाता है। हेमू को हाथी पर ना देख कर उसकी सेना डर जाती है और इधर-उधर भागने लगती है। इस प्रकार युद्ध में हेमू की पराजय हो जाती है और उसको पकड़ लिया जाता है। बैरम खां द्वारा हेमू का सिर काटकर उसकी हत्या कर दी जाती है। इस प्रकार पानीपत का द्वितीय युद्ध मुगलों के लिए एक निर्णायक विजय के रूप में सामने आता है।

युद्ध की पृष्ठभूमि

26 दिसंबर 1530 को मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र हुमायूं मुगल सम्राट बनता है। लेकिन सिंहासन पर आसीन होने के कुछ समय बाद ही उसके सामने शेरशाह सूरी के रूप में एक बड़ी चुनौती सामने आ जाती है। शेरशाह सूरी उसको भारत से बाहर खदेड़ देता है। दिल्ली और आगरा शेरशाह सूरी के हाथों में आ जाते हैं। वह 1540 में सूर साम्राज्य की स्थापना करता है। लेकिन कालिंजर के किले को जीतने के क्रम में शीघ्र ही 1545 में उसकी मृत्यु हो जाती है।

शेरशाह सूरी के बाद उसका छोटा पुत्र इस्लाम शाह सूरी राजा बनता है जो कि एक योग्य शासक सिद्ध होता है। लेकिन 1553 में उसकी मृत्यु के बाद सूर साम्राज्य में उत्तराधिकार का युद्ध प्रारंभ हो जाता है। राज्य में कई जगह विद्रोह होने लगते हैं और कई प्रांत स्वतंत्र हो जाते हैं।

हुमायूं इस अव्यवस्था का लाभ उठाता है और 23 जुलाई 1555 को सिकंदर शाह सूरी को हराने के बाद दिल्ली और आगरा पर पुनः कब्जा जमा लेता है।

इस्लाम शाह के वैध उत्तराधिकारी, उसके 12 वर्षीय पुत्र फिरोज खान की उसके मामा द्वारा हत्या कर दी जाती है और वह आदिलशाह सूरी के नाम से सिंहासन पर बैठता है। यह नया शासक शासन चलाने में कम रुचि लेता है बल्कि आमोद प्रमोद में ज्यादा व्यस्त रहता था।

पानीपत का तृतीय युद्ध(1761)

राजकाज देखने की पूरी जिम्मेदारी हेमू के पास थी जो आदिलशाह का प्रधानमंत्री और उसकी सेना का सेनानायक भी था। हेमू एक हिंदू था जिसका संबंध रेवाड़ी (हरियाणा) से था और वह शेरशाह सूरी का पुराना साथी और वफादार था। उसका संबंध एक सामान्य परिवार से था लेकिन अपनी योग्यता के कारण उसने इतना बड़ा पद प्राप्त किया। जनवरी 1556 में हुमायूं की मृत्यु के समय वह बंगाल में था। हुमायूं की मृत्यु ने मुगलों को हराकर आगरा और दिल्ली को पुनः जीतने का हेमू को एक आदर्श अवसर प्रदान किया।

हेमू बंगाल से दिल्ली की ओर तेजी से आगे बढ़ा और उसने बयाना, इटावा, लखना, संभल कालपी और नारनौल से मुगलों को खदेड़ दिया। हेमू के आक्रमण का समाचार सुनते ही आगरा का गवर्नर बिना लड़े ही शहर छोड़ कर भाग गया।

गवर्नर का पीछा करते हुए हेमू दिल्ली से बाहर एक गांव तुगलकाबाद पहुंचा जहां उसका सामना दिल्ली के मुगल गवर्नर तर्दी बेग खान से हुआ और वहां पर तुगलकाबाद के युद्ध में हेमू ने उसे हरा दिया। 7 अक्टूबर 1556 को हेमू ने दिल्ली पर अधिकार जमा लिया और विक्रमादित्य की उपाधि धारण करते हुए अपने आप को सम्राट घोषित कर दिया।

युद्ध की तैयारी

तुगलकाबाद से दुखद समाचार मिलते ही हुमायूं का उत्तराधिकारी 13 वर्षीय अकबर और उसका संरक्षक बैरम खां दिल्ली के लिए निकल पड़े। इस युद्ध में मुगलों का नेतृत्व खान जमान ने किया। वह 10000 घुड़सवारों के साथ आगे बढ़ा। इसे मुगलों का भाग्य ही कहा जा सकता है कि खान जमान के आगे बढ़ते ही उसे हेमू के तोपों को अपने कब्जे में लेने का सौभाग्य मिल गया।

मुगलों के आगे बढ़ते ही रास्ते में हेमू के तोप एक जगह से दूसरी जगह ले जाए जा रहे थे और मुगलों ने उस पर आक्रमण कर दिया और अफगान बिना उनका सामना किए ही बारूद और तोप छोड़कर भाग गए। यह घटना हेमू के लिए बहुत ही हानिकारक सिद्ध हुई।

खानवा का युद्ध (16 मार्च 1527)

5 नवंबर 1556 को ऐतिहासिक पानीपत के मैदान में दोनों सेनाएं आमने सामने खड़ी होती है। हेमू ने अपनी सेना का नेतृत्व स्वयं किया।

अकबर और बैरम खां युद्ध क्षेत्र से 8 मील दूर ही रहे। बैरम खान 13 वर्षीय अल्पवयस्क राजा अकबर के युद्ध के मैदान में उपस्थित होने के पक्ष में नहीं था। अकबर को वफादार सैनिकों की एक टुकड़ी के साथ युद्ध क्षेत्र से सुरक्षित दूरी पर तैनात किया गया था। अकबर को बैरम खान द्वारा निर्देश दिया गया था कि मुगल सेना की पराजय की स्थिति में वह काबुल की ओर पलायन कर जाए।

 

 

हेमू की सेना

हेमू की सेना मुगलों से संख्या में अधिक बड़ी थी और उसमें 30000 प्रशिक्षित घुड़सवार थे जिसमें अफगानी भी शामिल थे और 1500 युद्ध हाथियों की एक मजबूत टुकड़ी भी थी। हाथियों को रक्षाकवचों से ढका गया था और उनके ऊपर धनुर्धर भी थे। हेमू ने स्वयं एक हाथी पर विराजमान होकर अपनी सेना का नेतृत्व किया।

उसके बाईं टुकड़ी का नेतृत्व उसके बहन के पुत्र राम्या ने और दाईं सैनिक टुकड़ी का नेतृत्व सादी खान कक्कर ने किया। उसकी सेना ज्यादा अनुभवी और विजय के प्रति आश्वस्त थी क्योंकि अब तक आदिल शाह का प्रधानमंत्री और सेनापति रहते हुए बंगाल से लेकर पंजाब तक हेमू ने 22 युद्ध जीते थे।

पानीपत का द्वितीय युद्ध

हेमू की तरफ से युद्ध का प्रारंभ होता है। हेमू ने हाथियों को आगे बढ़कर मुगलों को कुचलने का आदेश जारी किया। मुगलों की जो सेना इन हाथियों से बच गई वह पीछे भागने की बजाय किनारों पर चली आई और हेमू के घुड़सवारों के ऊपर आक्रमण कर दिया और उन पर बाण छोड़े जाने लगे। मुगलों के मध्य की सेना आगे बढ़ी और एक खाईं के पास उन्होंने रक्षात्मक स्थिति धारण कर लिया। खाई के कारण हेमू के हाथी और घोड़े आगे शत्रुओं की ओर नहीं बढ़ सके और उन्हें दूसरी ओर से शत्रुओं के वार का सामना करना पड़ा।

मुगलों के घुड़सवारों ने अफगान सैनिकों पर हमला शुरू कर दिया और हाथियों को निशाना बनाते हुए उनके पैरों पर वार प्रारंभ कर दिया। हाथी सवारों को भी वे गिराने लगे। बाध्य होकर हेमू को अपने हाथियों को वापस लौटाना पड़ा।

अफ़गानों के आक्रमण को धीमा पड़ता देख अली कुली खान ने अपने घुड़सवारों को आगे किया और अफगानों को घेरने लगा। हेमू अपने हाथी से युद्ध क्षेत्र का लगातार निरीक्षण कर रहा था। उसने मुगलों के इस आक्रामकता के प्रतिरोध में तेजी दिखाई। अपने योग्य सेनापतियों सादी खान कक्कर और भगवानदास को युद्ध भूमि में अच्छे से लड़ते हुए देखकर भी वह मुगलों के विरुद्ध जवाबी आक्रमण का नेतृत्व करता रहा और जिसने उसके हाथियों को चुनौती दी उसका सामना किया। युद्ध का परिणाम हेमू के पक्ष में जाता दिख रहा था। मुगलों के दाएं और बाएं टुकड़ियों को खदेड़ दिया गया था और हेमू ने हाथियों और घुड़सवारों की सेना को मुगलों के केंद्र को कुचलने के लिए आगे बढ़ने का आदेश दिया।

इस समय हेमू संभवतः विजय के निकट था तभी दुर्भाग्यवश मुगलों की तरफ से आई एक तीर उसके आंख में लग गई। वह घायल होकर अपने हाथी से नीचे गिर गया और मूर्छित हो गया। हेमू को हाथी से गायब देखकर उसकी सेना में डर व्याप्त हो गया और सैनिक इधर-उधर भागने लगे। इस प्रकार इस युद्ध में हेमू की पराजय हुई। बाद में हेमू को पकड़ लिया गया और उसकी हत्या कर दी गई।

युद्ध के बाद का दृश्य

इस युद्ध को जीतने के बाद मुगलों का दिल्ली और आगरा पर अधिकार हो गया। लेकिन बंगाल तक का क्षेत्र जीतने में अकबर को 8 साल लग गए।

इस युद्ध के बाद हेमू का कटा हुआ सिर काबुल के दिल्ली दरवाजे पर प्रदर्शन के लिए भेजा गया और उसके बचे हुए शरीर को दिल्ली के पुराने किले के बाहर लटका दिया गया ताकि लोगों के दिलों में डर बना रहे।

हेमू की पत्नी दिल्ली के पुराने किले से अपने खजाने के साथ भाग निकली जिसका मुगल कभी पता नहीं लगा पाए। हेमू के अफगान समर्थकों और रिश्तेदारों को पकड़ लिया गया और उनकी सामूहिक हत्या कर दी गई। कई स्थानों पर उनके कटे हुए सिरों से मिनारें बनाई गई। युद्ध के 6 महीने बाद हेमू के 82 वर्षीय पिता को अलवर से पकड़ लिया गया और उसे मौत के घाट उतार दिया गया।

 

 

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