पानीपत का तृतीय युद्ध कब हुआ था
पानीपत का तृतीय युद्ध अफगानिस्तान के शासक अहमद शाह अब्दाली और मराठों के बीच पानीपत के मैदान में 14 जनवरी 1761 को हुआ था । मराठों की मजबूत सेना के बाद भी उन्हें हार का सामना करना पड़ा.
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इस युद्ध में मराठों की हार से उनके भारत विजय के अभियान को गहरा धक्का लगा। इस युद्ध में मराठों के कई योग्य सैनिक मारे गए। हार के सदमे को सहन न कर पाने के कारण युद्ध के कुछ समय बाद पेशवा बालाजी बाजीराव की मृत्यु हो गयी .
18 वीं शताब्दी के प्रारंभ में 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य का पतन प्रारंभ हो गया। मुगल वंश में अब कोई ऐसा शासक नहीं रहा जो उत्तर से दक्षिण तक अपना नियंत्रण स्थापित कर सके।मुगल साम्राज्य के विरुद्ध पहले से ही आक्रामक मराठों का साहस अब और बढ़ गया। पहले से ही मराठाओं का भगवा परचम बुलंदी पर लहरा रहा था. पेशवा बाजीराव के नेतृत्व में राजपुताना, मालवा अथवा गुजरात के राजा मराठों के साथ आ मिले थे.
मराठों के लगातार आक्रमणों ने मुग़ल बादशाहों की हालत बदतर कर दी थी. उत्तर भारत के अधिकांश इलाके, जहां पहले मुग़लों का शासन था, वहां अब मराठों का कब्ज़ा हो चुका था. 1758 में पेशवा बाजीराव के पुत्र बालाजी बाजी राव ने पंजाब पर विजय प्राप्त कर मराठा साम्राज्य को और अधिक विस्तृत कर दिया, किन्तु उनकी जितनी ख्याति बढ़ी, उनके शत्रुओं की संख्या में भी उतनी ही बढोत्तरी हुई.
मुगल साम्राज्य का पतन तथा मराठों का बढ़ता वर्चस्व:
शिवाजी की मृत्यु के बाद 27 वर्ष तक मुगल मराठा संघर्ष(1680-1707) के दौरान मराठा अपने बहुत से क्षेत्र मुगल सम्राट औरंगजेब से हार गए। किंतु 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगलों में उत्तराधिकार का संघर्ष प्रारंभ हो गया और मराठों ने तेजी से 1712 तक अपने बहुत से हारे हुए क्षेत्र पुनः जीत लिए। पेशवा बाजीराव के समय गुजरात, मालवा और राजपूताना मराठों के नियंत्रण के अंतर्गत आ गए। 1737 में बाजीराव ने मुगलों को दिल्ली के बाहर पराजित किया और मुगल साम्राज्य के आगरा से दक्षिण के भू भाग को मराठा नियंत्रण के अंतर्गत ले लिया।
बाजीराव के पुत्र बालाजी बाजीराव ने 1758 में पंजाब पर आक्रमण करके मराठा साम्राज्य को और विस्तृत कर दिया तथा तैमूर शाह दुर्रानी को वहां से खदेड़ दिया. अब मराठा साम्राज्य की सीमाएं उत्तर में सिंधु एवं हिमालय तक तथा दक्षिण में प्रायद्वीप के निकट तक बढ़ गयी थीं.
यह मराठों की सर्वोच्च उपलब्धि थी. उन दिनों मराठा साम्राज्य की कमान पेशवा बाजीराव के पुत्र बालाजी बाजीराव के हाथों में थी. बाला जी ने अपने पुत्र विश्वास राव को दिल्ली के सिंहासन पर बैठाने का मन बना लिया था. अभी तक नाममात्र के लिए दिल्ली पर मुगलों का शासन था और वे सभी मराठों के विस्तृत होते हुए साम्राज्य को देख कर भयभीत थे.
अहमद शाह अब्दाली का भारत आगमन
मराठों का उत्तर में बढ़ता हस्तक्षेप तथा उनके द्वारा तैमूर शाह दुर्रानी को पंजाब से खदेड़े जाने के कारण मराठों तथा अहमद शाह अब्दाली में संघर्ष होना तय हो गया।
जिस तैमूर शाह दुर्रानी को 1758 में मराठों ने पंजाब से खदेड़ दिया था वह अफगानिस्तान के शासक अहमद शाह अब्दाली का पुत्र था। मराठों के इस आक्रामक कृत्य से अब्दाली बहुत क्रोधित हुआ और उसने मराठों पर आक्रमण करने का निश्चय किया।
1759 में अब्दाली ने बलोच और पश्तून जनजातियों से एक सेना का गठन किया और आगे बढ़ा। सबसे पहले उसने पंजाब के उन भागों पर हमला करके उन्हें अपने कब्जे में ले लिया जहां पर कम मराठी सेना तैनात थी। परिणाम स्वरूप उसने पंजाब, कश्मीर और मुल्तान पर आधिपत्य जमा लिया और आगे की ओर बढ़ने लगा।
अहमद शाह अब्दाली के भारतीय सहयोगी
पंजाब से आगे की ओर बढ़ने पर रोहिल्ला और अफगान भी अब्दाली के साथ हो गए।अवध के नवाब को दोनों पक्षों ने अपने साथ मिलाने की पूरी कोशिश की लेकिन जुलाई के अंत में अवध के नवाब ने इस्लाम के नाम पर अब्दाली का साथ दिया
मराठों की बढ़ती शक्ति को देखकर उत्तर भारत के कुछ राजा भी चिंतित थे और वे मराठों की इस विजय पताका को रोकना चाहते थे। शुजा मराठों की सहायता करने वाला था लेकिन उसने विश्वासघात कर दिया और अब्दाली से जा मिला। उत्तर भारत के कुछ छोटे शासक जो मराठों से भयभीत थे उन्होंने इस अवसर का लाभ उठाया और अब्दाली के साथ मिलकर मराठों के पतन में सहायक सिद्ध हुए।
एक समझौते के मुताबिक दिल्ली के बादशाह की सुरक्षा करना मराठों की ज़िम्मेदारी थी. इसके बदले में मराठाओं को उस इलाके में भूमि कर एकत्रित करने का अधिकार मिला था. मराठाओं से पहले यह अधिकार राजपूतों के पास था. जब राजपूतों से कर वसूलने का अधिकार वापिस ले लिया गया तो वे भी मराठाओं के ख़िलाफ़ खड़े हो गए. इसके साथ ही अजमेर और आगरा के जाटों ने भी मराठाओं की मदद नहीं की.
जयपुर और जोधपुर के राजाओं ने मराठों का साथ नहीं दिया. इसके साथ ही कई राजाओं को लगा कि अगर सदाशिव राव जीत गए तो वो उन पर अपना अधिकार जमा लेंगे इसलिए ये तमाम राजा भी मराठों की मदद के लिए आगे नहीं आए।
रोहिला नवाब नजीब-उद- दौला, दोआब क्षेत्र के अफ़गानों और अवध के नवाब शुजाउद्दौला ने ‘इस्लामिक सेना’ के नाम पर अब्दाली का साथ दिया।
पानीपत का युद्ध
पानीपत के युद्ध में मराठा और अब्दाली दोनों की सेनाएं अपने साथ अपने परिवालों को भी लेकर चल रहे थे. इसके अलावा कुछ श्रद्धालु भी थे जो पवित्रस्थलों की यात्रा के उद्देश्य से दोनों सेनाओं के साथ शामिल थे. उन दिनों में आमतौर पर श्रद्धालु सेनाओं के साथ ही तीर्थयात्रा करते थे, जिससे लुटेरों का ख़तरा कम हो जाता था.
31 अक्टूबर 1760 को मराठा और अब्दाली एक दूसरे के आमने-सामने थे. लेकिन जिस अंदाज़ में मराठाओं ने अपनी सेना को खड़ा किया था उससे अब्दाली को यह आभास हो गया कि बहुत जल्दी ही उनकी सेना मराठा फ़ौज के सामने घुटने टेक सकती है.एक तरफ मराठा फ़ौज ने अब्दाली का अफ़ग़ानिस्तान लौटने का रास्ता रोक दिया था, तो वहीं अब्दाली की सेना ने भी मराठाओं के दिल्ली लौटने का रास्ते को बंद कर दिया था.
7 दिसंबर को हुई लड़ाई में सदाशिवराव के करीबी बलवंत राव मेहदाले की मौत हो गई. गोविंदराव बुंदेले दिल्ली के रास्ते मराठा सेना को रसद मुहैया करवा रहे थे. अब्दाली ने बुंदेले को मार गिराया. इस वजह से 13 जनवरी के बाद मराठा सेना को खाने की आपूर्ति समाप्त हो गई.
अब्दाली दोबारा अफ़गानिस्तान लौटना चाहता था लेकिन मराठाओं ने अपनी सेना को चतुर्भुज प्रारूप में मैदान पर तैनात किया. बाईं तरफ और मध्य में मौजूद सैनिकों ने अब्दाली को रोके रखा. दोपहर तक मराठा सैनिक दुश्मन फ़ौज को पीछे धकेलने में कामयाब रहे.
मराठा सैनिक दोपहर तक अब्दाली की फ़ौज को उनके घुटनों पर ले आए थे. जब विश्वास राव की मृत्यु हो गई तो उसके बाद सदाशिव राव हाथी से उतरकर घोड़े पर आकर विश्वास राव के पास चले गए . जब मराठा सैनिकों ने सदाशिव राव के हाथी को खाली देखा तो यह ख़बर फ़ैल गई कि सदाशिवराव की भी मौत हो गई है, इस घटना से मराठा सैनिकों का मनोबल गिर गया . जिसके बाद अब्दाली ने अपने सैनिकों को एकजुट किया और फिर जवाबी हमला बोला. जिसका सामना थके और निराश मराठा नहीं कर सके.
यूरोपीय तकनीक पर आधारित मराठों की पैदल सेना एवं तोपखाने की टुकड़ी की कमान इब्राहिम खां गार्दी के हाथों में थी। इब्राहिम खां गार्दी भी इस युद्ध में मारा गया। सदाशिव राव भाऊ तथा विश्वास राव के साथ अनेक वीर मराठे सैनिक भगवा परचम लहराने के प्रयास में इस युद्ध में शहीद हो गए।
इस प्रकार जिस युद्ध को मराठा जीतने की कगार पर थे उसे वो हार गए. करीब 50 हज़ार मराठा सैनिकों की इस युद्ध में मौत हुई. लेकिन असैन्य लोगों को मिला लें तो मरने वालों की संख्या एक लाख तक पहुंच जाती है. अब्दाली के भी लगभग 30 हजार सैनिक इस युद्ध में मरे गए.
एक प्रत्यक्षदर्शी शुजाउद्दौला के दीवान काशीराज पंडित के अनुसार 40000 मराठा कैदियों की निर्दयता पूर्वक हत्या कर दी गई।
ठंड का असर
- पानीपत का युद्ध जनवरी के महीने में लड़ा गया जब वहां कड़ाके की ठंड पड़ती है. मराठा सेना के पास इस ठंड से बचने के लिए पर्याप्त गरम कपड़े भी नहीं थे.
- इतिहास पर नज़र दौड़ाएं तो पता चलता है कि अब्दाली के फ़ौजियों के पास चमड़े के कोट थे. उस युद्ध में सूर्य की भूमिका भी बहुत अहम हो गई थी.
- जैसे-जैसे ठंड बढ़ती जाती थी मराठा सैनिकों का जोश भी ठंडा पड़ता जाता।
मराठों के पराजय के कारण:
- मराठों को उत्तर भारत के राजपूत और जाट राजाओ का सहयोग न मिलना.
- उत्तर भारत की सभी मुसलमान शक्तियों का अब्दाली के साथ होना।
- अब्दाली द्वारा मराठो के खाद्य एवं रसद की आपूर्ति को बाधित करना .
- मराठा सरदारों के बीच आपसी मतभेद का होना।
- मराठों द्वारा छापामार युद्ध प्रणाली को त्यागना।कुछ इतिहासकारों का मानना है कि महाराष्ट्र के पहाड़ी इलाकों में मराठी छापामार युद्ध में प्रवीण थे लेकिन उत्तर भारत के मैदानी भागों में युद्ध का अनुभव ना होना उनके लिए घातक सिद्ध हुआ।
- सदाशिव राव का हाथी से उतर जाना। सदाशिव राव का यह कृत्य एक मूर्खता थी क्योंकि मराठों को लगा कि उनका नायक मारा गया। अतः नेतृत्व हीनता की स्थिति में सैनिकों का मनोबल गिर गया और वे इधर-उधर भागने लगे।
- ठंड के कारण भी मराठों का जोश ठंडा पड़ता गया। इतिहासकारों के अनुसार अब्दाली के सैनिकों के पास चमड़े के कोट थे जबकि मराठी सैनिक सामान्य वस्त्र में थे।
युद्ध के परिणाम:
यह 18 वीं शताब्दी का सबसे भयानक युद्ध था जिसमें एक लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हुई।इस युद्ध ने मराठों की कमर तोड़ कर रख दिया। मराठों में कोई ऐसा परिवार नहीं था जिसने इस युद्ध में अपने किसी सगे संबंधी को न खोया हो। यह युद्ध मराठों के लिए महाप्रलय सिद्ध हुआ। पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों के पराजय की सूचना बालाजी बाजीराव को इस प्रकार दी गई कि-
दो मोती विलीन हो गए,बाईस सोने की मुहरे लुप्त हो गयी और चांदी तथा ताम्बे की तो पूरी गणना ही नहीं की जा सकती.
बालाजी बाजीराव को इस युद्ध से इतना गहरा आघात लगा कि युद्ध के कुछ समय बाद ही उनकी मृत्यु हो गई।
इस युद्ध के परिणाम अग्रलिखित हैं-
- मराठा साम्राज्य का पुणे में रहकर पूरे हिंदुस्तान में भगवा फहराने का सपना चकनाचूर हो गया।
- इस युद्ध के बाद उत्तर भारत में मराठों का अभियान मंद पड़ गया।
- पानीपत के तृतीय युद्ध में हार के बाद दक्षिण में भी मराठों के लिए नेतृत्व का संकट खड़ा हो गया।
- दक्षिण में निजाम और हैदर अली ने मराठों के विरुद्ध मोर्चा खोलना प्रारंभ कर दिया।
- उत्तर में राजस्थान, मालवा और बुंदेलखंड के छोटे शासक भी मराठों को आंख दिखाने लगे।
- पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की हार का सबसे बड़ा फायदा अंग्रेजों को हुआ। अब भारत में कोई ऐसी शक्ति नहीं बची जो अंग्रेजों का डटकर सामना कर सकें।अब भारत के अधिकतर राजाओं की शक्तियां सिमट चुकी थी जिसके कारण अंग्रेजों को उनका साम्राज्य विस्तार करने में सहायता मिली।
- इस युद्ध के बाद मराठों का वर्चस्व धीरे-धीरे समाप्त होने लगा।पानीपत के तृतीय युद्ध के बाद लगभग 56 सालों तक मराठों का शासन रहा लेकिन वह अपने पतन की ओर ही उन्मुख था।
पानीपत के युद्ध के सदमे से मराठा कभी मुक्त नहीं हो पाए लेकिन अब भी भारतीय उपमहाद्वीप में उनका साम्राज्य सबसे बड़ा था और 10 वर्ष बाद उन्होंने दिल्ली पर पुनः कब्जा कर लिया।फिर भी 1800 तक तीन आंग्ल मराठा युद्ध के बाद पूरे भारत पर उनका दावा समाप्त हो गया।
यद्यपि अब्दाली ने इस युद्ध को जीत लिया लेकिन उसकी तरफ भी अत्यधिक क्षति हुई थी। वह आगे युद्ध लड़ने की स्थिति में नहीं था और मराठों से शांति चाहता था। उसने नाना साहब पेशवा (जो अपनी सेना के साथ अब्दाली के विरुद्ध दिल्ली की ओर बढ़ रहे थे) को पत्र लिखा कि उसने भाऊ पर आक्रमण नहीं किया था वह केवल अपनी रक्षा कर रहा था। अब्दाली ने यह पत्र पेशवा को 10 फरवरी 1761 को लिखा।
हमारे बीच शत्रुता का कोई कारण नहीं है।आपके पुत्र विश्वास राव और भाई सदाशिवराव युद्ध में मर गए जोकि दुर्भाग्यपूर्ण है। भाऊ ने युद्ध प्रारंभ किया इसलिए ना चाहते हुए भी मुझे वापस लड़ना पड़ा। फिर भी मुझे उनकी मृत्यु का खेद है।कृपया आप पहले की तरह ही दिल्ली के संरक्षक बने रहिए जिसके लिए मेरा कोई विरोध नहीं है। केवल सतलज नदी तक के पंजाब को हमारे साथ रहने दीजिए।शाह आलम को दिल्ली के सिंहासन पर बहाल कर दीजिए जैसा कि पहले आपने किया था और हमारे बीच शांति और मित्रता रहने दीजिए। यही मेरी इच्छा है और आप मुझे इसे प्रदान करें।
इन परिस्थितियों के कारण अब्दाली को शीघ्र ही भारत छोड़ना पड़ा। लेकिन भारत छोड़ने से पहले उसने भारतीय राजाओं (जिसमें रॉबर्ट क्लाइव भी शामिल था) को एक राजशाही फरमान द्वारा आदेश जारी किया कि शाह आलम द्वितीय को सम्राट की मान्यता दी जाए।
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