Sen vansh ka sansthapak kaun tha

सेन वंश का संस्थापक सामंत सेन था। सेन वंश का शासन बंगाल में पाल वंश के पतन के पश्चात स्थापित हुआ. सेन वंश बारहवीं शताब्दी  के अंत में बंगाल में अस्तित्व में आया.

सेन वंश के शासकों का मूल उत्पत्ति स्थल कर्नाटक बताया जाता है। देवपाल के समय से कुछ पाल सम्राटों ने कर्नाटक से संबंध रखने वाले कुछ लोगों को अधिकारियों के पदों पर नियुक्त किया था। कालांतर में कर्नाटक से संबंध रखने वाले यह अधिकारी शासक बन गए और स्वयं को राजपुत्र बताने लगे।

सेन शासकों की राजधानी वर्तमान में बंगाल का नदिया जिला था।

इस वंश के प्रथम शासक सामंत सेन ने दक्षिण के एक शासक राजेंद्र चोल को परास्त कर अपनी प्रतिष्ठा में वृद्धि की थी।
विजय सेन सेन वंश का प्रथम स्वतंत्र शासक था जिसने विक्रमपुर में अपनी राजधानी स्थापित की तथा मदनपाल को पराजित करके गौड़ पर अधिकार कर लिया।
विजय सेन ने गहड़वालों से युद्ध किया तथा उसने उड़ीसा पर भी आक्रमण किया। विजय सेन ने बंगाल पर लगभग 60 वर्षों तक शासन किया। विजयसेन ने देवपाड़ा में प्रदुम्नेश्वर मंदिर (विशाल शिव मंदिर) की स्थापना की थी।

विजयसेन के बाद उसका पुत्र बल्लाल  सेन शासक बना। बलालसेन ने अपने पिता से प्राप्त साम्राज्य को अखंड बनाए रखा। बल्लाल सेन ने दानसागर तथा अद्भुत सागर नामक दो ग्रंथों की रचना की थी।

बल्लाल सेन के बाद लक्ष्मण सेन शासक बना। लक्ष्मण सेन को कई आक्रमणों का सामना करना पड़ा है। लक्ष्मण सेन के राज्य पर कुतुबुद्दीन ऐबक के सेनानायक बख्तियार खिलजी ने भी आक्रमण किया। विश्वप्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट करने वाला बख्तियार खिलजी ही था जिसने वहां के पुस्तकालय में आग लगा दी और पुस्तकालय कई दिनों तक जलता रहा। लक्ष्मण सेन के समय में ही सेन वंश का पतन प्रारंभ हो गया था।

लक्ष्मण सेन का शासनकाल साहित्यिक गतिविधियों के उत्थान के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण माना जाता है। गोविंद के लेखक जयदेव लक्ष्मण सेन के दरबार में रहते थे। पवनदूत के लेखक धोयी एवं ब्राह्मणसर्वस्व के रचनाकार हल आयुध भी लक्ष्मण सेन के दरबारी थे। स्वयं लक्ष्मण सेन ने अपने पिता के अधूरे ग्रंथ अद्भुत सागर को पूर्ण किया था।
हलायुद्ध लक्ष्मण सेन का प्रधान न्यायाधीश एवं मुख्यमंत्री था।

सेन राजवंश से संबंधित एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि सेन राजवंश भारत का पहला राजवंश था जिसने अपना अभिलेख हिंदी में उत्कीर्ण करवाया। यह हिंदी आज की तरह परिष्कृत नहीं बल्कि अप भ्रंश का एक रूप था।

 

 

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